Rajasthan gk in hindi-Rajasthani temple architectur

राजस्थानी मंदिर वास्तु शिल्प

राजस्थान का वास्तु शिल्प विशेषकर किले और महल पूरी दुनिया में मशहूर है लेकिन यहां के मंदिरों को भी दुनिया भर से सैलानी देखने के लिए आते हैं।

राजस्थान का मंदिर शिल्प बहुत प्राचीन है और शुरूआती दौर में बने मंदिर भी बहुत कलात्मक होते थे। 

शुरूआती दौर में बने मन्दिरों में केवल एक कक्ष होता था जिसके साथ दालान जुड़ा होता था।

आगे चलकर चौथी और पांचवी शताब्दी में राजस्थान के स्थापत्य शिल्प और खासकर मंदिर शिल्प का स्वर्ण युग आया जिसमें इस क्षेत्र में भव्य मंदिरों का निर्माण हुआ।

राजस्थान के बेहतरीन मंदिर स्थापत्य शिल्प को ओसियां, किराडु, हर्ष, अजमेर, आबू, चन्द्रावती, बाडौली, गंगोधरा, मेनाल, चित्तौड़, जालौर और बागेंहरा के रमणीक मन्दिरों में देखा जा सकता है। 

चौहानों, परमारों और कुछ अन्य राजपूत वंशों ने बेहतरीन मंदिरों का निर्माण करवाया। 

राजस्थान के स्थापत्य शिल्प का इतिहास गुहा काल से शुरू होता है।

चित्तौड़ग के समीप नागरी में प्राप्त 481 ई. के एक शिलालेख से राजस्थान में प्रारम्भिक वैष्णव मन्दिरों का प्रभाव ज्ञात होता है। 

अलवर के तसाई शिलालेख के अनुसार बलराम के साथ-साथ वारुणी की भी पूजा होती थी। 

दसवीं ग्याहरवीं सदी के जगत और रामगढ़ के मन्दिरों अन्य उदाहरण हैं जिनमें तांत्रिक अभ्यास का ज्ञान होता था। 

राजस्थान में प्रतिहारों का युग उन मन्दिरों के निर्माण के लिए उल्लेखनीय है जिनमें सूर्य और शिव की मूर्तियां प्रतिष्ठित की गई हैं। 

भीनमाल, ओसिया, मण्डोर और हर्षनाथ के मन्दिर जिनमें भगवान् सूर्य प्रतिष्ठित हैं, राजस्थानी स्थापत्य शिल्प की मनोहारी कृतियां हैं।

प्रतिहार में कोई निश्चित देवी-देवता नहीं था। कुछ लोग वैष्णव सम्प्रदाय के अनुयायी थे तो कुछ शैव सम्प्रदाय को मानने वाले थे। 

उदाहरण के लिए रामभद्र सूर्य का अनन्य भक्त था लेकिन माथनदेव शिवपूजा का समर्थक था। 

मेवाड़ में शिव मन्दिर की भरमार थी जिन में सर्वाधिक प्रसिद्ध है एकलिंग जी का मंदिर जिसे परम्परानुसार सर्वप्रथम महारावल द्वारा निर्मित बताया जाता है।

शिव, विष्णु और सूर्य निर्मित देवताओं के अतिरिक्त राजस्थान के मन्दिरों में शक्ति के साथ-साथ भगवती, दुर्गा की प्रतिष्ठा की गयी थी। 

इनमें जगत, मण्डोर, जयपुर और पुष्कर का ब्रह्मा मन्दिर उल्लेखनीय है। आबानेरी और मण्डोर में नृत्य करते हुए गणेश की मूर्तियां भी पाई जाती हैं।

मध्य युग में मन्दिर वास्तुशिल्प उत्तरी और दक्षिण शैलियों में विभाजित हो गया था। 

आधार रचना में समानता के बावजूद अन्य भागों के निर्माण में अपने-अपने लक्षण दृष्टिगोचर होने लगे थे। 

सम्भवत: इस परिवर्तन का कारण भौगोलिक प्रभाव और क्षेत्र के लोगों की पूजन विधियों में अन्तर रहा हो। 

राजस्थान में मन्दिरों पर दक्षिणी स्थापत्य शैली का प्रभाव पड़े बिना न रह सका। उत्तर के मन्दिरों पर दक्षिणी स्थापत्य शैली का प्रभाव पड़े बिना न रह सका, इनके शिखरों और मण्डलों की निर्माण रचना दक्षिण से भिन्न रही है। 

कड़ियों, छज्जों द्वारा शिखर के स्वरुप का विधान किया जाता था, जो ऊपर जाकर पाट को सीमित कर देता था। 

इसके शीर्ष पर आमलक अपने भार से सम्पूर्ण संरचना को आबद्ध रखता था।
दसवीं तथा ग्याहरवीं सदियों में रामगढ़ और जगत के मन्दिरों का निर्माण मन्दिर स्थापत्य कला में एक नूतन दिशा का उद्घोष रहा। 

राग विषयक दृश्यों के चित्रण को भक्तों में सुखपूर्वक जीवनयापन के लिए ज्ञान के रुप में प्रसारित करना बताया जाता है। 

इन मिथुन मूर्तियों की नक्काशी का अन्य कारण सांसरिक सुखों और भोगों से विरक्त रहने के लिए भी हो सकता है। इस काल में शिव सम्प्रदाय का भी प्रभुत्व रहा था।

ठाकुर फेरु द्वारा 1315 ई. में लिखित एक मनोरंजक ग्रंथ वास्तुशास्र, राजस्थान में जैन मन्दिरों के स्थापत्य शिल्प की व्यवहारिक कुंजी रहा है। 

इसमें वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित स्थापत्य शिल्प के सिद्धान्तों प्रतिपादन किया गया है, जिसका इन मन्दिरों के कलाकारों के द्वारा अक्षरस: पालन किया गया। 

केवल हिन्दुओं और जैन मतावलम्बियों के धार्मिक प्रासादों के पूजाग्रहों में स्थापित मूर्तियों की भिन्नता के अलावा दोनों ही के मन्दिरों की स्थापत्य कला मिलती-जुलती थी और एक बार तो दोनों धर्मों के निर्माताओं द्वारा उन्हीं शिल्पियों और स्थापकों को इनके निर्माण के लिए बुलाया जाता रहा।

उत्तरी भारत के जैन मन्दिरों में ग्याहरवीं-तेरहवीं सदी में बने आबू के जैन मन्दिर अपनी विशिष्ठ शैली वाले हैं। 

इनकी रचना मकराना के सफेद संगमरमर से हुई है और ये प्रभावोत्पादक अलंकृत स्तम्भों से शोभायुक्त है। 

भित्तियों और स्तम्भों की सजावट घिस-घिस कर की गई है काट-काटकर नहीं। यह पद्धति सदियों तक काम में लायी जाती रही और बाद में मुगल वास्तुकारों ने ग्रहण किया।

बाहरवीं सदी से लेकर तेहरवीं सदी का काल राजपूत राजाओं में आन्तरिक वैमनस्य और दुर्जेय मुगलों के साथ-साथ संघर्ष का कथानक है। 

इसी परिस्थिति में राजा और प्रजा दोनों के लिए सुन्दर प्रसादों का निर्माण करवा पाना सहज नहीं था। वर्तमान मन्दिरों को भी मूर्ति-भंजनों ने बहुत क्षति पहुंचाई। 

इसका एक कारण उनकी वह अंधी ईर्ष्या भी थी जिसके द्वारा वे अपनी स्थापत्य कला को श्रेष्ठता की स्थिति में पहुंचाना चाहते थे। उनके हाथों विनाश से शायद ही कोई मन्दिर बच पाया हो।

चित्तौड़गढ़, रणकपुर और राजस्थान के अन्य मंदिर आज भी उसकी शोकमयी कहानी कहते हैं।

अनिश्चय की स्थितियों और मुगलों के आधिपत्य के बावजूद, चौदहवीं और पन्द्रहवीं सदी में अचलगढ़, पीपड़, रणकपुर और चित्तौड़गढ़ के मन्दिरों का आविर्भाव हुआ।

ब्रिटिश काल में जयपुर की महारानी ने माधो बिहारी जी के मन्दिर का निर्माण करवाया।

पिलानी में सफेद संगमरमर से निर्मित शारदा मन्दिर, राजस्थान के मन्दिर स्थापत्य शिल्प के इतिहास में बिड़ला परिवार का उल्लेखनीय योगदान है।

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